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मुट्ठी भर पानी

SWATANTRA SOCH
SWATANTRA SOCH
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एक दिन मुट्ठी भर पानी बह रहा था

मैं उसे पीना चाहता था

हाथ का बांध बनाकर रोका

झुकाकर सिर पीने को हुआ

उसने याचना कि जाने दूं उसे

वह बहते हुए क्षितिज तक जायेगी

हज़ारों लोग उसके प्रवाह को देखेंगे

उसे कैद मत करो अपनी प्यास के लिए

उसने भी सपने बुने हैं ; जाने दो !

मैंने हाथ हटाया

और वह अपने पथ पर बहती गयी

मेरे सूखे लब हैं

और गीले हाथ

जो अब तक पोंछे नहीं  

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